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जमुन-जल मेघ / बुद्धिनाथ मिश्र

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लौट आए हैं जमुन-जल मेघ

सिन्धु की अंतर्कथा लेकर ।


यों फले हैं टूटकर जामुन

झुक गई आकाश की डाली

झाँकती हैं ओट से रह-रह

बिजलियाँ तिरछी नज़र वाली

ये उठे कंधे, झुके कुंतल

क्या करें काली घटा लेकर !


रतजगा लौटा कजरियों का

फिर बसी दुनिया मचानों की

चहचहाए हैं हरे पाखी

दीन आँखों में किसानों की

खंडहरों में यक्ष के साए

ढूंढ़ते किसको दिया लेकर ?


दूर तक फैली जुही की गंध

दिप उठी सतरंगिनी मन की

चंद भँवरे ही उदासे गीत

गा रहे झुलसे कमल-वन में

कौन आया द्वार तक मेरे

दर्भजल सींची ऋचा लेकर ?


दर्भजल=कुश से टपकता जल