भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़ब्त करती रही मुस्कुराती रही / वसुधा कनुप्रिया

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:29, 8 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वसुधा कनुप्रिया |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़ब्त करती रही मुस्कुराती रही
और दुनिया मुझे आज़माती रही

वो बहारों के सपने दिखाते रहे
मैं वफा जानकर ज़हर खाती रही

उनके वादे भी उन जैसे बेशर्म थे
मैं ही पागल थी वादे निभाती रही

सारी दुनिया के ग़म आँखों में भर लिये
अपना दुख दर्द ही मैं भुलाती रही

कल यहाँ आँधियों का बहुत ज़ोर था
लौ दिये की मगर झिलमिलाती रही

वापसी का सफ़र ख़ुशनुमा हो गया
दूर तक तेरी आवाज़ आती रही