भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़मीं पे फ़स्ल-ए-गुल आई फ़लक पर माहताब आया / शकील बदायूँनी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:06, 29 अप्रैल 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शकील बदायूँनी }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <poem> ज़मीं पे फ़स्ल-ए-गुल …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़मीं पे फ़स्ल-ए-गुल आई फ़लक पर माहताब आया
सभी आए मगर कोई न शायान-ए-शबाब आया

मेरा ख़त पढ़ के बोले नामाबर से जा ख़ुदा-हाफ़िज़
जवाब आया मेरी क़िस्मत से लेकिन लाजवाब आया

उजाले गर्मी-ए-रफ़्तार् का ही साथ देते हैं
बसेरा था जहाँ अपना वहीं तक आफ़्ताब आया

"शकील" अपने मज़ाक़-ए-दीद की तकमील क्या होती
इधर नज़रों ने हिम्मत की उधर रुख़ पर नक़ाब आया