भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़िंदगी का हिसाब / शैलप्रिया

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:22, 6 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे सखी,
अँगारों पर पाँव धर कर
फफोले फूँकती हुई
चितकबरे काले अहसासों
से घिरी हूँ ।
मगर अब
चरमराई जूतियाँ उतार कर
नंगे पाँव
खुले मैदान में दौड़ना चाहती हूँ ।

हे सखी,
मौसम जब ख़ुशनुमा होता है
अब भी बज उठते हैं
सलोने गीत,
कच्ची उम्र की टहनियाँ
मंजरित हो जाती हैं।
यथार्थ की घेराबंदी मापते हैं पाँव ।

हे सखी,
कब तक चौराहों पर
खड़ी जोड़ती रहूँ
ज़िंदगी का हिसाब?
उम्र
चुकी हुई साँसों का
ब्याज माँगती है ।