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ज़िंदगी जितना तुझको पढ़ता हूँ / डी. एम. मिश्र

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जिंदगी जितना तुझको पढ़ता हूँ
उतना ही और मैं उलझता हूँ

सारे आलम को यह ख़बर कर दो
इश्क़ की आग में उतरता हूँ

वक़्त पर जो मेरा हथियार बने
वो क़लम साथ लिए चलता हूँ

हक़़ ग़रीबों का छीन लेते जो
उन लुटेरों से रोज़ लड़ता हूँ

जब कोई रास्ता नहीं सूझे
ऐ ख़ुदा तुझको याद करता हूँ

यूँ तो दुनिया में हसीं लाखों हैं
तेरी सूरत पे मगर मरता हूँ

अपनी फ़रियाद कहाँ ले जाऊँ
सामने सिर्फ़ तेरे रखता हूँ