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ज़िन्दगी का दर्द लेकर इन्क़लाब आया तो क्या / शकील बदायूँनी

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ज़िन्दगी का दर्द लेकर इन्क़लाब आया तो क्या
एक जोशीदा पे ग़ुर्बत में शबाब आया तो क्या

अब तो आँखों पर ग़म-ए-हस्ती के पर्दे पड़ गए
अब कोई हुस्न-ए-मुजस्सिम बेनक़ाब आया तो क्या

ख़ुद चले आते तो शायद बात बन जाती कोई
बाद तर्क-ए-आशिक़ी ख़त का जवाब आया तो क्या

मुद्दतों बिछड़े रहे फिर भी गले तो मिल लिए
हम को शर्म आई तो क्या उनको हिजाब आया तो क्या

एक तजल्ली से मुनव्वर कीजिए क़त्ल-ए-हयात
हर तजल्ली पर दिल-ए-ख़ानाख़राब आया तो क्या

मतला-ए-हस्ती की साज़िश देखते हम भी 'शकील'
हम को जब नींद आ गई फिर माहताब आया तो क्या