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ज़ौक़ / परिचय

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‘ज़ौक़’ 1204 हि. तदनुसार 1789 ई. में दिल्ली के एक ग़रीब सिपाही शेख़ मुहम्मद रमज़ान के घर पैदा हुए थे। शेख़ रमज़ान नवाब लुत्फअली खां के नौकर थे और काबुली दरवाज़े के पास रहते थे। शैख़ इब्राहीम इनके इकलौते बेटे थे। बचपन में मुहल्ले के एक अध्यापक हाफ़िज़ गुलाम रसूल के पास पढ़ने के लिए जाते। हाफ़िज़ जी शायर भी थे और मदरसे में भी ‘शे’रो-शायरी का चर्चा होता रहता था, इसी से मियां इब्राहीम की तबीयत भी इधर झुकी। इनके एक सहपाठी मीर काज़िम हुसैन ‘बेक़रार’ भी शायरी करते थे और हाफ़िज जी से इस्लाह लेते थे। मियां इब्राहीम की उनसे दोस्ती थी। एक रोज़ उन्होंने एक ग़ज़ल सुनायी जो मियां इब्राहीम को पसंद आयी। पूछने पर काज़िम हुसैन ने बताया कि हम तो शाह नसीर (उस ज़माने के एक मशहूर शायर) के शागिर्द हो गये हैं और ग़ज़ल उन्हीं की संशोधित की हुई है। चुनांचे इब्राहीम साहब को भी शौक़ पैदा हुआ कि उनके साथ जाकर शाह नसीर के शिष्य हो गए।

लेकिन शाह नसीर ने इनके साथ वैसा सुलूक न किया जैसा बुजुर्ग उस्ताद को करना चाहिए था। मियां इब्राहीम में काव्य-रचना की प्रतिभा प्रकृति-प्रदत्त थी और शीघ्र ही मुशायरों में इनकी ग़जलों की तारीफ़ होने लगी। शाह नसीर को ख़याल हुआ कि शायद शागिर्द उस्ताद से भी आगे बढ़ जाय और उन्होंने न केवल इनकी ओर से बेरुख़ी बरती बल्कि इन्हें निरुत्साहित भी किया। इनकी ग़ज़लों में कभी बेपरवाही से इस्लाह दी और अक्सर बग़ैर इस्लाह के ही बेकार कहकर वापस फेरने लगे। इनके अस्वीकृत शे’रों के मज़मून भी शाह नसीर के पुत्र शाह वजीहुद्दीन ‘मुनीर’ की ग़ज़लों में आने लगे जिससे इन्हें ख़याल हुआ कि उस्ताद इनके विषयों पर शे’र कहकर अपने पुत्र को दे देते हैं। इससे कुछ यह खुद ही असंतुष्ट हुए, कुछ मित्रों ने उस्ताद के ख़िलाफ़ इन्हें उभारा। इसी दशा में एक दिन यह ‘सौदा’ की एक ग़ज़ल पर ग़ज़ल कहकर उस्ताद के पास लेकर गए। उन्होंने नाराज़ होकर ग़ज़ल फेंक दी और कहा ‘‘अब तू मिर्ज़ा रफ़ी सौदा से भी ऊंचा उड़ने लगा ?’’ यह हतोत्साह होकर जामा मस्जिद में आ बैठे। वहां एक बुजुर्ग मीर कल्लू ‘हक़ीर’ के प्रोत्साहन से ग़ज़ल मुशायरे में पढ़ी और खूब वाहवाही लूटी। उस दिन से ‘ज़ौक़’ ने शाह नसीर की शागिर्दी छोड़ दी।

उस्ताद से आज़ाद हो गये तो ख़याल हुआ कि शहर में होने वाली नामवरी को आगे बढ़ाकर शाही किले पहुँचाया जाय। उन दिनों अकबर शाह द्वितीय बादशाह थे। उन्हें कविता से कुछ लगाव न था लेकिन युवराज मिर्ज़ा अबू ज़फ़र (जो बाद में बहादुरशाह द्वितीय के नाम से बादशाह हुए) स्वयं कवि थे और क़िले में अक्सर काव्य-गोष्ठियां कराया करते थे जिनमें उस समय के पुराने-पुराने शायर आते थे। लेकिन मियां इब्राहीम एक ग़रीब सिपाही के बेटे, किसी रईस की ज़मानत के बग़ैर क़िले में कैसे जाने पायें। काफ़ी कोशिश के बाद मीर काज़िम हुसैन की मध्यस्थता से क़िले के मुशायरों में शरीक होने लगे। काज़िम साहब खुद भी उस ज़माने के अच्छे शायरों में समझे जाने लगे थे। उन दिनों शाह नसीर युवराज के कविता-गुरु थे। कुछ दिनों बाद वे दीवान चन्दूलाल के बुलावे पर हैदराबाद चले गए क्योंकि आर्थिक दृष्टि से वह दरबार दिल्ली से कहीं लाभदायक था। उनके बाद मीर काज़िम हुसैन युवराज को इस्लाह देने लगे लेकिन कुछ दिनों बाद वे भी मि. जॉन ऐलफ़िन्सटन के मीर-मुंशी होकर पश्चिम की ओर चले गये। ऐसे ही में एक दिन संयोगवश युवराज ने ‘ज़ौक़’ को (जो अभी बिल्कुल लड़के ही थे) अपनी ग़ज़ल दिखायी। इस्लाह उन्हें इतनी पसंद आयी कि उन्होंने इन्हें अपना कविता गुरु बना लिया और तनख़्वाह भी चार रुपया महीना मुक़र्रर कर दी। इस अल्प वेतन का भी दिलचस्प इतिहास है। बादशाह अकबर शाह अपनी एक बेग़म मुमताज़ से खुश थे और उनके कहने से मिर्ज़ा ज़फ़र को युवराज-पद से अलग करना चाहते थे। अंगरेज़ी अदालत में इसका मुकद्दमा भी चल रहा था। युवराज को उनके नियत 5000 रुपये की बजाय 500 रुपया महीना ही मिलता था। इसी में सारे शाही ठाठ-बाट करने पड़ते थे। उनके मुख़्तारे-आ़म मिर्ज़ा मुग़ल बेग थे इन महानुभाव का काम यह था कि युवराज पर जिसकी कृपा होती थी उसका पत्ता काटने की फ़िक्र में लग जाते थे। चुनांचे इन की मेहरबानी से तनख़्वाह चार रुपये से शुरू हुई और फिर दो बार तरक़्क़ी हुई तो चार से पांच और पांच से सात हो गयी। ‘ज़ौक़’ अगर चाहते तो युवराज से कहकर इस ज़लील तनख़्वाह को क़ायदे की करा सकते थे, लेकिन उन्होंने इस बारे में कभी अपने मालिक से एक शब्द भी नहीं कहा।

‘ज़ौक़’ के पिता ने उन्हें बादशाह से बिगाड़ करने वाले युवराज की इतनी कम तनख़्वाह पर नौकरी करने से मना भी किया लेकिन इन्हें कुछ युवराज की तबियत इतनी भा गई थी कि किसी बात का ख़याल न किया और नौकरी करते रहे। इधर दिल्ली के एक पुराने रईस और मिर्ज़ा ग़ालिब के ससुर नवाब इलाही बख़्श खां ने इन्हें बुलवाया और यद्यपि वे स्वयं बहुत बूढ़े हो चुके थे तथापि इस अल्पायु कवि से अपनी कविताओं में संशोधन कराने लगे। ‘ज़ौक़’ अपने इन दोनों ‘शागिर्दों’ से उम्र और रुतबे में बहुत ही कम थे। साथ ही ख़ानदानी ग़रीबी ने पढ़ने भी ज़्यादा न दिया था। इसलिए यह अपनी उस्तादी क़ायम रखने के लिए खुद ही कविता का जी तोड़कर अभ्यास करने लगे और अपनी जन्मजात प्रतिभा के बल पर इस कला में शीघ्र ही निपुण हो गये। ख़ास तौर पर नवाब साहब की उस्तादी ने, जो हर रंग के शे’र कहते थे, इन्हें हर रंग का उस्ताद बना दिया।

इसी ज़माने में शाह नसीर हैदराबाद से लौटे। (शाह नसीर धनार्जन के लिए तीन बार हैदराबाद गये और फिर दिल्ली के आकर्षण ने उन्हें यहां ला खैंचा। लखनऊ भी दो बार जाकर लौट आये। अंत में चौथी बार की हैदराबाद यात्रा में उनका वहीं देहान्त हुआ।) दिल्ली आकर उन्होंने फिर अपने मुशायरे जारी कराये। अब ‘ज़ौक़’ इनमें शामिल हुए तो शागिर्द की नहीं, प्रतिद्वंद्वी की हैसियत से शामिल हुए। शाह नसीर ने एक ग़ज़ल लिखी थी जिसकी रदीफ़ थी ‘‘आबो-ख़ाको-बाद’’। उन दिनों मुश्किल रदीफ़ क़ाफ़ियों में पूरे मतलब के साथ और काव्य-परम्परा क़ायम रखते हुए ग़ज़लें कहना ही काव्य-कला का चरमोत्कर्ष समझा जाता था। शाह नसीर ने चुनौती दी कि इस रदीफ़ क़ाफ़िए में कोई ग़ज़ल कह दे तो उसे उस्ताद मान लूं। ‘ज़ौक़’ को तो शाह साहब को नीचा दिखाना था। उन्होंने इस ज़मीन में एक ग़ज़ल और तीन कसीदे कह दिये। शाह साहब ने मुशायरे ही में उस पर अपने शागिर्दों से एतराज करवाये और खुद भी किये लेकिन ‘ज़ौक़’ ने अपने तर्कों से सब को चुप कर दिया। अब ‘ज़ौक़’ की धाक उस्ताद की हैसियत से अच्छी तरह जम गयी। लेकिन इससे यह न समझना चाहिए कि ‘ज़ौक़’ की व्यक्तिगत रूप से भी शाह साहब से अनबन हो गयी थी। दोनों के मैत्री-संबंध अंत तक बने रहे। शाह नसीर की उर्स आदि की दावत में ‘ज़ौक़’ बराबर जाते थे। शाह नसीर अंतिम बार जब हैदराबाद गये तो ‘ज़ौक़’ ने बुढ़ापे के ख़याल से उन्हें वहां जाने से रोकना भी चाहा था।

लेकिन ‘ज़ौक़’ को अपनी कविता की धाक बिठाने से अधिक अपनी कमजोरियों को दूर करने की चिन्ता थी। (बड़प्पन इसी तरह मिलता है।) उन्हें अपने अध्ययन के अभाव की बराबर खटक रहा करती थी। संयोग से अवध के नवाब के मुख्तार राजा साहब राम ने अपने पुत्र को तत्कालीन विद्याओं-इतिहास, तर्कशास्त्र, गणित आदि-में पारंगत करना चाहा और इसके लिए ‘ज़ौक़’ के एक पुराने गुरु मौलवी अब्दुर्रज़ाक को नियुक्त किया। एक दिन ‘ज़ौक़’ भी मौलवी साहब के यहां चले गये। राजा साहब उनकी योग्यता से इतने प्रभावित हुए कि इनसे कहा कि तुम बराबर पढ़ने आया करो। यहां तक कि अगर किसी कारण ‘ज़ौक़’ किसी दिन न आते तो राजा साहब का आदमी उन्हें ढूँढ़ने के लिए भेजा जाता और अगर फिर भी वे न आते तो उस दिन की पढ़ाई स्थगित हो जाती। ‘ज़ौक़’ की क़िस्मत ही ज़ोरदार थी, वर्ना इतने निस्वार्थ सहायक कितनों को मिल पाते हैं।

लेकिन उनकी असली सहायक उनकी जन्मजात प्रतिभा और अध्ययनशीलता थी। कविता-अध्ययन का यह हाल कि पुराने उस्तादों के साढ़े तीन सौ दीवानों को पढ़कर उनका संक्षिप्त संस्करण किया। कविता की बात आने पर वह अपने हर तर्क की पुष्टि में तुरंत फ़ारसी के उस्तादों का कोई शे’र पढ़ देते थे। इतिहास में उनकी गहरी पैठ थी। तफ़सीर (कुरान की व्याख्या) में वे पारंगत थे, विशेषतः सूफी-दर्शन में उनका अध्ययन बहुत गहरा था। रमल और ज्योतिष में भी उन्हें अच्छा-खासा दख़ल था और उनकी भविष्यवाणियां अक्सर सही निकलती थीं। स्वप्न-फल बिल्कुल सही बताते थे। कुछ दिनों संगीत का भी अभ्यास किया था और कुछ तिब्ब (यूनानी चिकित्सा-शास्त्र) भी सीखी थी। धार्मिक तर्कशास्त्र (मंतक़) और गणित में भी वे पटु थे। उनके इस बहुमुखी अध्ययन का पता अक्सर उनके क़सीदों से चलता है जिनमें वे विभिन्न विद्याओं के पारिभाषिक शब्दों के इतने हवाले देते हैं कि कोई विद्वान ही उनका आनंद लेने में समर्थ हो सकता है। उर्दू कवियों में इस कोटि के विद्वान कम ही हुए हैं।

किन्तु उनकी पूरी प्रतिभा काव्य-क्षेत्र ही में दिखाई देती थी 19 वर्ष की अवस्था में उन्होंने बादशाह अकबर शाह के दरबार में एक क़सीदा सुनाया। इसमें फ़ारसी काव्य में वर्णित समस्त अलंकार तो थे ही, साथ ही विभिन्न विद्याओं की भी अच्छी जानकारी दर्शाई गई थी। इसके, अतिरिक्त इसमें एक ही ज़मीन में 18 विभिन्न भाषाओं में शे’र कहकर शामिल किये गए थे। इस क़सीदे का पहला शे’र यह है : जब कि सरतानो-असद मेहर का ठहरा मसकन आबो-ऐलोला हुए नश्वो-नुमाए-गुलशन इस पर उन्हें ‘ख़ाक़ानी-ए-हिन्द’ का ख़िताब मिला। ख़ाकानी फ़ारसी भाषा का बहुत मशहूर क़सीदा कहने वाला शायर था। 19 वर्ष की अवस्था में यह ख़िताब पाना कमाल है। 36 वर्ष की अवस्था में समस्त पापों से तौबा की और इसकी तारीख़ कही: ऐ ज़ौक़ बिगो सह बार तौबा।’’ यानी ‘‘ऐ ज़ौक़ तीन बार तौबा कह। बहादुरशाह बादशाह हुए तो उनके मुख़्तार मिर्ज़ा मुग़ल बेग मंत्री हुए। उन्होंने अपना पूरा कुनबा क़िले में भर लिया किन्तु उस्ताद की तनख़्वाह सात रुपये से बढ़ी तो तीस रुपया महीना हो गई। ‘ज़ौक़’ को यह बेक़दरी बहुत बुरी मालूम होती थी। लेकिन स्वभाव में संतोष बहुत था। कभी बादशाह से इसकी शिकायत नहीं की। उन्हें खुद क्या ख़बर होती कि किसे कितना मिल रहा है। ‘ज़ौक़’ ग़रीबी के दिन काटते रहे।

अंत में पाप का घड़ा फूटा। मिर्ज़ा मुग़ल बेग और उनका सारा कुनबा क़िले से निकाला गया। ‘ज़ौक़’ की तनख़्वाह बढ़कर सौ रुपया महीना हो गई। यद्यपि यह तनख़्वाह भी उनकी योग्यता को देखते हुए कुछ न थी और हैदराबाद से दीवान चन्दूलाल ने ख़िलअ़त और 500 रुपये भेजकर इन्हें बुलाया लेकिन यह ‘ज़फ़र’ का दामन छोड़कर कहीं न गये। तनख़्वाह के अलावा ईद-बक़रीद पर इनाम भी मिला करते थे। अंतिम काल में उन्होंने बादशाह के बीमारी से अच्छे होने पर एक कंसीदा, ‘‘वाहवा, क्या मोतदिल है बाग़े-आ़लम की हवा’’ पढ़ा। इस पर उन्हें ख़िलअ़त, ख़ान बहादुरी का ख़िताब और चांदी के हौदे के साथ एक हाथी मिला। फिर उन्होंने एक क़सीदा कहा, ‘‘शब को मैं अपने सरे-बिस्तरे-ख़्वाबे-राहत।’’ इस पर उन्हें एक गांव जागीर में मिला। अंत में इस कमाल के उस्ताद ने 1271 हिजरी (1854 ई.) में सत्रह दिन बीमार रहकर परलोक गमन किया। मरने के तीन घंटे पहले यह शे’र कहा था: कहते हैं ‘ज़ौक़’ आज जहां से गुज़र गया क्या खूब आदमी था, खुदा मग़फ़रत करे

व्यक्तित्व और स्वभाव भगवान ने ‘ज़ौक़’ को बुद्धि और मृदु स्वभाव देने में जो दानशीलता दिखायी थी, शारीरिक व्यक्तित्व देने में उतनी ही बेपरवाही बरती। उनका क़द साधारण से कुछ कम ही था और रंगत सांवली। चेहरे पर चेचक के दाग़ बहुतायत से थे। खुद कहते थे कि मुझे नौ बार चेचक निकली थी किन्तु आंखें चमकती हुई थीं। चेहरे का नक़्शा खड़ा-खड़ा था। बदन में बहुत फुरती थी, बहुत तेज़ चलते थे। कपड़े अक्सर सफ़ेद पहनते थे, वह उन पर भले ही लगते थे। आवाज़ ऊंची और सुरीली थी। मुशायरे में ग़जल पढ़ते तो आवाज़ गूंजकर रह जाती थी। उनके पढ़ने का तर्ज़ भी बड़ा अच्छा था। हमेशा अपनी ग़ज़ल खुद ही पढ़ते थे, किसी और से कभी नहीं पढ़वाते थे।

उनकी स्मरण शक्ति बड़ी तीव्र थी। जितनी विद्याएं और उर्दू फ़ारसी की जितनी कविता-पुस्तकें उन्होंने पढ़ी थीं, उन्हें वे अपने मस्तिष्क में इस प्रकार सुरक्षित रखे हुए थे कि हवाला देने के लिए पुस्तकों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, अपनी स्मरण-शक्ति के बल पर हवाले देते चले जाते थे। सही बात तो यह है कि इतनी विद्याओं का सीखना भी अति तीक्ष्ण ग्रहण-शक्ति और स्मरण-शक्ति के बग़ैर संभव नहीं था।