भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाके लगे गृहकाज तजे अरु मातु पिता हित नात न राखै / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:14, 1 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाके लगे गृहकाज तजे अरु मातु पिता हित नात न राखै ।
सागर लीन ह्वै चाकर चाह के धीरज हीन अधीर ह्वै भाखै ।
ब्याकुल मीन ज्योँ नेह नवीन मेँ मानो दई बरछीन की साखै ।
तीर लगै तरवारि लगै पै लगै जनि काहूँ सोँ काहू की आँखै ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।