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जानना / जय गोस्वामी / रामशंकर द्विवेदी

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कमरे में घुस आई तुम
सफ़ेद रंग की सलवार - कमीज़ में

मेरी नई पुस्तक हाथ में लेकर
उलट डाले दो पन्ने

घर में आज और कोई नहीं है,
इसीलिए स्वयं
दो कप चाय बना लाया

दोनों जनों के चेहरे पर
जंगले की ग्रिल की फाँक से आ
 रही है अस्ताभ की लालिमा,

यह बात वह बात होने लगी,
वही बात मैं कह रहा हूँ
तुम्हारी खिलखिलाहट के शब्द ने
खोल दिए हैं पूरे कमरे में पँख

जिस उम्र में मैं पहुँच गया हूँ,
वहाँ पर क्या मन नाम की
कोई चीज़ रह जाती है ?

यदि रह जाती है तो बताओ,
मेरे मन की बात
क्या तुम्हारी जानी हुई है ?

मूल बाँगला भाषा से अनुवाद : रामशंकर द्विवेदी