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जिदंगी / तारादत्त निर्विरोध

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(1)
कभी एक पर्वत थी जिदंगी
सूनी-अकेली-अबोली-सी,
किसी ने छुआ फूल बन गई,
किसी ने झटक दिया
पाँखुरी-सी बिखर गई।
तब जाना:
न कभी वह फूल थी,
न राई-पर्वत,
एक खिलौना भर थी
टूट बिखर कर
होती रही आहत।
कोई और जिदंगी
पास आई तो
वह प्रभावित हुई
और किसी बिछोह के साथ
रह गई छुईमुई।

(2)
एक मुसफिर थी जिदंगी
जिसका संफर
जहां से होता शुरु
वहीं होता खत्म।
फिर कोई दूसरा सफर
होता शुरु
किसी तीसरे-चौथे
संफर के लिए।

(3)
हर बार जिदंगी
एक घर से बदलती रही
दूसरा घर,
कभी भीतर, कभी बाहर,
और मैं कहता रहा
जल्दी ही लौट आना घर,
बाहर सब कहीं है
कोई डर,
किंतु वह नहीं लौट पाती घर तक,
और रह जाती है
किसी संफर तक।

(4)
बड़ी बदनसीब थी जिदंगी
जब करीब थी जिदंगी ।
वह आती
मुझे अकेला छोड़ कर
जाने के लिए,
रिश्ते भी बनाती
तो उन्हें तोड़कर
जाने के लिए।
कितनी ंगरीब थी जिदंगी
जब अपनी रंकीब थी जिंदगी।
--
औरत
औरत
नहीं मरनी चाहिए औरत
पति से पहले,
सब समाप्त हो जाता है
भीतर-बाहर
मन का डर
और घर भी नहीं रह जाता
कोई घर।

नहीं मरनी चाहिए औरत
उसके बाद
पति रहता है मृतप्राय:
विकल्पहीन या निरुपाय
खाली सड़क या फुटपाथ-सा
ठहरे हुए वक्त, फटी हुई ामीन
और कटे हुए हाल-सा
होता है औरत का घर से
गहरा प्यार, पक्का जुड़ाव
और घुस नहीं पाते
घर में अभाव।
नहीं मरनी चाहिए औरत
घर हो जाता है
उजड़े हुए उद्यान-सा,
और एक पूरा साथ
किसी खण्डित मकान-सा।
नहीं मरनी चाहिए औरत,
कोई मर्म नहीं रह जाता
माँ-बहन या संगिनी होने का,
बहुत पाकर सब खोने का।