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जीवन-तरु / महेन्द्र भटनागर

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ये मुरझा कर टूट रहे हैं, मेरे जीवन-तरु के पल्लव !

दुख की उष्ण हवाओं ने आ सोख लिया सब प्राणों का रस,
कोमल दृढ़तर सब अंगों को हाय, शिथिल कर डाला बरबस,
रुधिर प्रवाहित करने वाली गतिहीन पड़ीं तन की नस-नस,
रह जाते अरमान अधूरे, अर्द्ध-डगर पर ही तरस-तरस,
उर में अभिलाषाएँ अगणित रह जातीं क़ैद वहीं वेबस,
मेरे जीवन का नंदन वन है पतझर-सा सूखा तहस-नहस,
भीषण रूप बना मरघट का, है मौन खगों का मधु-कलरव !

बिन विकसे खोयी कितनी ही सुरभित कलियाँ, कोमल किसलय,
डाली-डाली सूख रही है, पर सहता जाता मौन हृदय,
प्राण प्रकम्पित करने वाले स्वर में मन की कोयल गाती,
सूखी-सरि के निर्जन तट पर करुणा का संगीत बहाती,
आँसू की धाराएँ मिलकर गंगा-यमुना-सी लहरातीं,
पूरी गति से बाढ़ उमड़कर उर-घाटी में आ चढ़ जाती,
पर, आज बहाए ले जाती काँटों का दुखदायी वैभव !
1945