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जीवन सफ़र / आरती 'लोकेश'

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सागर तट की रेत सा
जीवन मेरा कुछ बिखर गया है।
संघर्षों लहरों के बहाव में
छपाक से टूट, कुछ सँवर गया है।
पड़ी चमकती धूप तो,
कष्ट सह तपकर कुछ निखर गया है।
तूफ़ान बहुत झेले तब
अस्तित्व खोकर कुछ सिमट गया है।
देख तिनका-तिनका पीड़ित
व्यथा द्रवित हो उनसे लिपट गया है।
थमा बवंडर शांत किनारे
छिटकी सीपी को सहलाने निकट गया है।
दूर प्रवाह से रह जब चाहा स्थिर टिककर रहना
तो आँधियों ने इधर-उधर पटक दिया है।
कभी इस टीले में
कभी उस डगर पर
अज्ञात मुसीबतों ने पल में झटक दिया है।
रोज़ सफ़र, नए मुकाम
राह हरेक के हमजोली
से हाथ मिलाए शिखर समीप अटक गया है।
समस्या आती है जीवन में
मार्ग पर डटकर चलना ही प्रगति जानी है।
पत्थर और काँटों के रस्ते
किसके न जीवन की यह नियति ज्ञानी है।
हँसते, गीत गाते चलो चले
सतत उन्नति पथ की यही प्रकृति पहचानी है।