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जुस्तजू / संजय मिश्रा 'शौक'

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सहर तलक
कभी पहुंचू
ये जुस्तजू थी मेरी
मगर
उम्मीद के दामन में भर गए कांटे
मैं इक चिराग हूँ
जलना मेरा मुकद्दर है
मैं खुद तो जलता हूँ
लेकिन मेरे उजाले में
तमाम चेहरों को पहचानती है ये दुनिया
नकाब उठाते हैं शब् भर मेरे उजाले में
फना की सिम्त बढाता हूँ मैं कदम हर पल
है मेरे दिल में भी ख्वाहिश
अज़ल के दिन से ही
मुझे कभी तो बका-ए-दवाम हो हासिल
ये जो सहर की मुझे जुस्तजू है मुद्दत से
इसे भी दिल से कभी तो निकल दे या रब!!!