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जॉन कान्ताकुज़िनोस की जीत / कंस्तांतिन कवाफ़ी / सुरेश सलिल

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वो खेत-मैदान का जायज़ा लेता है जो अब भी उसके हैं
गेहूँ, मवेशी, फलों से लदे दरख़्त
और उस सबके पार उसका पुश्तैनी घर
कपड़ों, महँगे फर्नीचर, चाँदी के बर्तनों से भरा-पूरा ।

यह सब कुछ वे उससे ले लेंगे
या ख़ुदा, अब सारी चीज़ें वे उससे ले लेंगे ।

अगर वह बादशाह कान्ताकुज़िनोस के क़दमों पर जा गिरे
तो क्या वह उस पर रहम खाएगा ?
लोग कहते हैं वह दयावान है, बहुत दयावान,
मगर जो लोग उसके आसपास हैं ?... और फौज ?

या वह झुक जाए, बेगम इरिनी के आगे जा गिड़गिड़ाए ?
बेवकूफ था कि अन्ना के गिरोह में शामिल हो जाने को था
अगर जन्नतनशीन बादशाह ने शादी न की होती उससे !

कोई अच्छा काम कभी किया उसने ?... कोई इंसानी सूबूत दिया ?
‘फ्रैंक’ तक उसकी इज़्ज़त नहीं करते ।
उसकी योजनाएँ बेतुकी और हास्यास्पद थीं ।

वे जबकि कुस्तुन्तुनिया से हर किसी को धमका रहे थे
कांन्ताकुज़िनोस ने उन्हें बरबाद कर दिया
लार्ड जॉन ने उन्हें बरबाद कर दिया

और अगर उसने लार्ड जॉन के गिरोह में
शामिल होने का वादा किया होता
उस पर अमल किया होता
इस वक़्त ख़ुश होता,
इस वक़्त भी रसूख़ वाला बड़ा आदमी होता

उसकी हैसियत बरकरार होती अगर आख़िरी लम्हे
बिशप ने उसे रोका न होता अपनी पुरोहिती हनक [दबादबा] से,
बिल्कुल बोगस उसकी जानकारियाँ
उसके वादे और सारी बकवास ।

[1924]

इस कविता का केन्द्रीय पात्र कवि-कल्पित है और घटनाकाल, पिछली कविता ‘रँगीन काँच के’ वाला ही । बिजान्तीनी सम्राट आन्द्रोनिकोस तृतीय के निधन के बाद जॉन कान्ताबुज़िनोस को रीजेण्ट नियुक्त किया गया । इस घटना से उसके और दिवँगत सम्राट की विधवा अन्ना आफ़ सेवाय, के बीच सीधा टकराव शुरू हो गया । कुस्तुन्तुनिया का बिशप अन्ना का समर्थन कर रहा था। अन्त में कान्ताकुज़िनोस की जीत हुई ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल