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जो महल तामीर करते हैं कड़कती धूप में / ओम प्रकाश नदीम

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जो महल तामीर करते हैं कड़कती धूप में ।
उनके दिन अक्सर गुज़रते हैं सड़क की धूप में ।

जल रही है आदमीयत यूँ मज़हबी धूप में,
जिस तरह जलती है धरती गर्मियों की धूप में ।

फूल ग़ज़लों के खिले थे जो अदब की छाँव में,
आज वो कुम्हला रहे हैं जिन्सियत की धूप में ।

ज़ुल्म और मज़लूम को रंगीन चश्मे से न देख,
बर्फ़ में भी है वही जो है सफ़ेदी धूप में ।

ये भरे सावन की आमद की अलामत है ’नदीम’,
ख़त्म होने के लिए बढ़ती है गर्मी धूप में ।