भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झपटते हैं झपटने के लिए परवाज़ करते हैं / ख़ालिद महमूद
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:31, 17 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ख़ालिद महमूद |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem>...' के साथ नया पन्ना बनाया)
झपटते हैं झपटने के लिए परवाज़ करते हैं
कबूतर भी वही करने लगे जो बाज़ करते हैं
वही क़िस्से वही बातें के जो ग़म्माज़ करते हैं
तेरे हम-राज़ करते हैं मेरे दम-साज़ करते हैं
ब-सद हीले बहाने ज़ुल्म का दर बाज़ करते हैं
वही जाँ-बाज़ जिन पर हर घड़ी हम नाज़ करते हैं
ज़्यादा देखते हैं जब वो आँखें फेर लेते हैं
नज़र में रख रहे हों तो नज़र-अंदाज़ करते हैं
सताइश-घर के पंखों से हवा तो कम ही आती है
मगर चलते हैं जब ज़ालिम बहुत आवाज़ करते हैं
ज़माने भर को अपना राज़-दाँ करने की ठहरी है
तो बेहतर है चलो उसे शोख़ को हम-राज़ करते हैं
डराता है बहुत अंजाम-ए-नमरूदी मुझे ‘ख़ालिद’
ख़ुदा लहजे में जब बंदे सुख़न आगाज़ करते हैं