भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झिलमिलाते हुए दिन रात हमारे लेकर / आलोक श्रीवास्तव-१

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:59, 10 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

झिलमिलाते हुए दिन-रात हमारे लेकर,
कौन आया है हथेली पे सितारे लेकर।

हम उसे आँखों की देहरी नहीं चढ़ने देते,
नींद आती न अगर ख़्वाब तुम्हारे लेकर।

रात लाई है सितारों से सजी कंदीलें,
सरनिगूँ दिन है धनक वाले नज़ारे लेकर।

एक उम्मीद बड़ी दूर तलक जाती है,
तेरी आवाज़ के ख़ामोश इशारे लेकर।

रात, शबनम से भिगो देती है चहरा-चहरा,
दिन चला आता है आँखों में शरारे लेकर।

एक दिन उसने मुझे पाक नज़र से चूमा,
उम्र भर चलना पड़ा मुझ को सहारे लेकर।

शब्दार्थ :
सरनिगूँ=नतमस्तक