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टिक-टक सुइयाँ तीन, घड़ी की / रमेश तैलंग

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टिक-टिक
सुइयाँ तीन,
घड़ी की।

दिन में बारह गाँव चलेंगी।
छोटे-छोटे पाँव चलेंगी।
आधी रात गुजर जाएगी,
तब फिर बार गाँव चलेंगी
टिक-टिक
सुइयाँ तीन,
घड़ी की।

एक ‘सैल’ पर इतराएँगी।
नए जोश से भर जाएँगी।
‘सैल’ जहाँ कमजोर हुआ तो
वहाँ अचानक रुक जाएँगी।
टिक-टिक
सुइयाँ तीन,
घड़ी की।