भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टुकड़े-टुकड़े रात कटी है / देवेन्द्र कुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:03, 19 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेन्द्र कुमार }} {{KKCatNavgeet}} <poem> दिन डू...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिन डूबा औ रात हुई मन
यह भी कोई बात हुई मन ।

डार-डार पर टँगी हवाएँ
अपने रंग में रँगी हवाएँ
धुएँ-धुएँ बरसात हुई मन ।

टुकड़े-टुकड़े रात कटी है,
क्या कोई ख़ैरात बँटी है
कब की नींद हयात हुई मन ।

तालू से जुबान मिलती है
दाँतों की कोठी हिलती है
हर इच्छा आपात हुई मन ।