भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ठोकरों से मंज़िलें आबाद होकर रह गईं / प्रभा दीक्षित

Kavita Kosh से
गंगाराम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:42, 15 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभा दीक्षित }} Category:ग़ज़ल <Poem> ठोकरों से मंज़िल...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ठोकरों से मंज़िलें आबाद होकर रह गईं
कशमकश में ज़िन्दगी बरबाद होकर रह गई।

आपसे किसने कहा था चाँद छूने के लिए
शायरी वर्जित फलों का स्वाद होकर रह गई।

सांझ के ढलने से पहले कौन पंछी चीख़ता था
क्रौंच-वध की फिर नई फ़रियाद होकर रह गई।

घोंसलें किस पर बनाएँ पेड़ जब कटने लगे
वक़्त की बुलबुल यहाँ अवसाद होकर रह गई।

दोस्ती का लुत्फ़ इतना ही उठा पाए हैं हम
दुश्मनी भी एक भली-सी याद होकर रह गई।

पहनती है एक उदासी मुस्कुराहट का लिबास
जब ग़ज़ल हर दर्द का अनुवाद होकर रह गई।