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डर / त्रिभवन कौल

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रात के अँधेरे से मुझे डर नहीं लगता
उजाले की भीड़ में खुद को तन्हा पाता हूँ
मदद की गुहार लगा रहा वह शख़्स भी तन्हा
इंसां को मौत से माँगते पनाह देखता हूँ।

खुद को ख़ुदा समझ बैठा, इंसान वह भी
खुदी से खुद को कर जुदा बैठा, इंसान वह भी
फिर क्यों सोचे कोई कि "मैं तन्हा क्यों हूँ?"
"मैं भी तो इंसान हूँ पर जुदा क्यों हूँ?"

रिश्ते सारे सिमिट गए तकनीकी औज़ारों में
बात अब होती नहीं गलियों में, बाज़ारों में
हरे भरे जंगल पतझड़ की ज़द में आ गए
प्यार रह गया अब यादों की गलियारों में।

करिश्मा कर! राख से उठ हम उड़ने लगें
प्यार की भाषा फिर से हम समझने लगें
आधुनिकता ने हमको हमसे दूर कर दिया
काश!एक बार वह बचपन फिर से आने लगे।