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डर लगता है / मृत्युंजय

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मैं रँग-बिरँगे सपनों के
नीले दर्पण में
लाल-हरे मस्तूलों वाली
मटमैली सी नाव सम्भाले
याद तुम्हारी झिलमिल करती श्याम देह
केसर की आभा से
गीला है घरबार
मार कर मन बैठा हूँ
ख़ाली मन की ख़ाली बातें
रातें हैं बिलकुल ख़ामोश
डर लगता है ।