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डोडो / जनार्दन कालीचरण

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कभी इस धरती का खुला आंगन
तेरा अपना था ।
चैन की बंशी बजाता फिरता
कहीं न छिपना था ।।
टें-टें करते स्वच्छन्द घूमता
चारा ढूंढ़ता था ।
ज़िन्दगी की आस लिए निडर
दिग-दिगन्त झूमता था ।।
आ गये तब पोतों में भर
सभ्य यूरोपीय यहाँ ।
देख न सके तेरा भरा बदन
जो न मिला था वहाँ ।।
उनके असुर जाग उठे
करने लगे शिकार तेरा ।
भेदने लगे गठिली देह
दे चारों ओर से घेरा ।।
कंधों पर बन्दूक लेकर
वन-वन देते फेरा ।
नोचने लगे स्वानों जैसे
स्वादिष्ट मांस तेरा ।।
कितना स्वार्थी है यह मानव
देखता सिर्फ अपना ।
सीख उसने जीवन में
पराये माल को हड़पना ।।
नस्ल मिटाकर इस दुनिया से
अमर किया नाम तुमने ।
देश की ख्याति बढ़ा दी
देकर प्यारे प्राण तुमने ।।
धन्य हुई है जाति तेरी
अस्थियों की निशानी से ।
धन्य हुई है धरती यह
तुझ जैसे त्यागी प्राणी से ।।