भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ढूंढिए लाख मगर दोस्त कहाँ मिलते हैं / सिया सचदेव

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:02, 29 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सिया सचदेव }} {{KKCatGhazal}} <poem> ढूंढिए लाख मग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ढूंढिए लाख मगर दोस्त कहाँ मिलते हैं
जिस तरफ जाइए बस दुश्मन ए जां मिलते हैं
 
मेरे एहसास मेरे दिल को जवां मिलते हैं
मुस्कुराते हुए मिलते हैं जहाँ मिलते हैं
 
जुस्तजूं रहती हैं खुद को भी हमारी अपनी
खो गए हम तो किसी को भी कहाँ मिलते हैं
 
उन से कह दीजे मेरे प्यार की कुछ कद्र करें
चाहने वाले ज़माने में कहाँ मिलते हैं
 
आज तो छावं में बैठी हूँ अपने आँगन में
वक़्त की धूप के क़दमों के निशाँ मिलते हैं
 
गुफ़्तगू का ना सलीका है ना आदाब कोई
आज के दौर में क्या एहले-जबां मिलते हैं
 
जां लुटा देने की जो करते हैं बाते अक्सर
वक़्त पड़ जाये तो वो लोग कहाँ मिलते हैं
 
मेरी खुद्दार तबीयत को गवारा ही नहीं
वहाँ चलना जहां क़दमों के निशाँ मिलते हैं .
 
पहले अश'आर सिखा देते थे जीने की कला -
आजकल ऐसे खयालात कहाँ मिलते हैं
 
ढलते सूरज को जो देखूं तो ख्याल आता है
उम्र ढलने के भी चेहरे पे निशाँ मिलते हैं
 
चंद चेहरे जो चमकते है बहुत महफ़िल में
उनको तन्हाई में देखो तो धुवां मिलते हैं
 
सिल गए होंठ मेरे ज़ख्म सिलें या ना सिलें
इश्क वालों को सिया दर्द यहाँ मिलते हैं