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तरइयाँ भींज चलीं / रामचरण हयारण 'मित्र'

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नइँ आए, सजनि! भरतार, तरइयाँ भींज चलीं।
गए सज-बन के जुद्ध लरन खों,
अभय अजयगढ़ बिजय करन खों,
अभिमानिन के मान दरन खों,

बाँद कमर तरवार; तरइयाँ भींज चलीं।
सजन हमाए समर जुझारू,
धरत कभउँ नइँ पावँ निछारू,
अरिअन पै जब होत उतारू,

करत बार पै बार; तरइयाँ भींज चलीं।
बदरा उठतइ लखे धुँआँ के,
सुँनत रई घनघोर धमाके,
तरवारन के खनक खनाके,

वीरन की ललकार; तरइयाँ भींज चलीं।
काऊ कौ नइँ गउत गहेसौ,
जइसों लगतइ अधिक अँदेसौ,
अबै तलक नइँ मिलो सँदेसौ,

जीत भई कै हार; तरइयाँ भींज चलीं।
हेरत-हेरत बाट पिया की,
मलिन भई जर जोत दिया की,
बढ़न लगी है जरन जिया की,

भए फीके सिंगार, तरइयाँ भींज चलीं।
तबइँ सुनाने विजय नगारे,
हुँदकत घुड़ला आए दुआरे,
‘मित्र’ धना दए खोल किबारे,

सजा सुकंचन थार; तरइयाँ भींज चलीं।
तुरतइँ राई नोंन उतारो,
हरख हरद कौ तिलक समारो,
गरें हार कमलन कौ डारो,
परछन लओ उतार, तरइयाँ भींज चलीं।