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तलाक माँगती औरतें / सरिता महाबलेश्वर सैल

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तलाक माँगती औरतें बिल्कुल अच्छी नहीं लगती है
वह रिश्तों के उस बहीखाते में बोझ-सी लगने लगती है
जिस पर पिता ने लिखा था उसके शादी का खर्चा
उस माँ की नजरों में भी ख़टकने लगती है
जिसमें अब पल रहा होता है
उसकी छोटी बहन के शादी का ख्वाब...
तलाक माँगती औरतें बिल्कुल अच्छी नहीं लगती है
गाँव का कुआँ हररोज सुनता है उसके बदचलन होने की अफवाह
जब मायके आती है
वातावरण में एक भारीपन साथ लेकर आती है
जैसे अभी-अभी घर की खिलखिलाहट को
किसी ने बुहारकर कोने में रख दिया हो
तलाक माँगती औरतें किसी घटना की तरह चर्चा का विषय बन जाती है
उछाली जाती है वह कई-कई दिनों तक
तलाक मांगती औरतें बिल्कुल अच्छी नहीं लगती है
दो घरों के बीच पिसती रहती है
मायके में कंकड़ की तरह बिनी जाती है
और एक दिन,
अपना बोरिया-बिस्तर बाँध
किसी अनजान शहर में जा बैठती है
और जोड़ देती है अपने टुटे पंखों को
दरवाजे पर चढ़ा देती है अपने नाम का तख्ता
आग में डाल देती है उन तानों को
जो उसे कभी दो वक़्त की रोटी के साथ मिला करते थे
चढ़ा देती है चूल्हे पर नमक अपने पसीने का
और ये औरतें इस तलाक शब्द को
खुद की तलाश में मुक्कमल कर देती है।