भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ताज़िया / संजय अलंग

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:17, 5 मार्च 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय अलंग |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> मेरे क...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मेरे कस्बे में ताज़िया
सम्पूर्ण कस्बे की
सामूहिकता को समावेशित करता

वह कस्बा
जहाँ सैफूद्दीन मा’साब झूम कर मानस गाते
पाँचो वक़्त नमाज़ को भी जाते

पूरा कस्बा उमड़ पड़ता
देखता ताज़ियों की शोभा और भव्यता
हबीब को हैरत अंगेज़ तलवार चलाते देख दाद देता
सटीक निशाने से आलू को दो टूक होते देख वाह-वाह करता
बच्चे ताज़ियों के नीचे से गुज़र कर
पास होने की मुराद पूरी होने की करते कामना
बड़े अन्य मुद्दों की
 
चौक पर कस्बा थम जाता
उमड़ पड़ता शामिल होने को
तब तक न तो हुई थी कोई यात्रा
न ही गिरा था कोई ढ़ाँचा