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तीर वो जो कमान छोड़ गया / बलजीत सिंह मुन्तज़िर

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तीर वो जो कमान छोड़ गया ।
क़हर भर के गुमान<ref>सम्भावनाएँ</ref> छोड़ गया ।

एक दीदार<ref>दर्शन</ref> दिल के दरिया में,
उम्र भर का उफ़ान छोड़ गया ।

हादसा तो गुज़र गया लेकिन,
तल्ख़<ref>कटु</ref> अपने निशान छोड़ गया ।

चन्द दूरी पे थे किनारे से,
वो मगर दरमियान<ref>बीच में</ref> छोड़ गया ।

वस्ल<ref>मिलन</ref> को था गुरेज़<ref>किनारा करना</ref> इतना के,
हिज्र<ref>वियोग</ref> की वो मियान छोड़ गया ।

उसका साया रहे इसी से वो,
याद के सायबान<ref>छाया के लिए छज्जा</ref> छोड़ गया ।

शोख़<ref>चंचल</ref> तारें भी हैं परेशाँ से,
चाँद क्यों आसमान छोड़ गया ।

रखके मूँछों का बाल ज़ामिन<ref>जमानत</ref> पर,
मर्द अपनी ज़बान छोड़ गया ।

बाद मरने के दुःख की ग़ज़लों का,
एक शाइर दीवान छोड़ गया ।

'मुंतज़िर'<ref>प्रतीक्षारत</ref> होके ढूँढ़ते हो जिसे
वो तो कब का जहान<ref>संसार</ref> छोड़ गया ।।

शब्दार्थ
<references/>