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तुम कैसे नद हो जो टंगे रहे हिम की दीवारों पर / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

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तुम कैसे नद हो जो टंगे रहे हिम की दीवारों पर,

अब तक उतरे नहीं पहाड़ों से भू की जलधारों पर.

 

मौसम दहका - बंद हवाओं के द्रोही तेवर बदले,

तुम रीझे रह गए बादलों के रंगीन इशारों पर.

 

ऐसी भी क्या बात – न व्यथित निर्झर-खेल-तराई हो,

तुम सुध-बुध खो बैठे अलका के सज्जित अभिसारों पर.

 

मरु-अघाती तृष्णा से दरके वन-उपवन को भूले,

रहे ढूंढते भाषा क्षणदा की लमवती पुकारों पर.

 

अंबर में उमड़ी छवि के नीलम दीपों की रचना में,

तुम न पसीजे कुटी-कोटरों के प्यासे उद्गारों पर.

 

खींचे जाओ ऊपर तुम रंगीन लकीरें पारे की,

स्यापा छाया रहने दो सिकता के खिन्न कगारों पर.

 

जीवन-रसा भले मन को जलती लौ से तुमको टेरे,

इंद्रमहल से मना उतरना तुमको तृषित किनारों पर