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तुम रहे हो द्वीप जैसे / सोम ठाकुर

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तुम रहे हो द्वीप जैसे, मैं किनारे सा रहा
पर हमारे बीच में है सिंधु लहराता हुआ

शीशे काटे शब्द रहते हैं तुम्हारे होंठ पर
लाख चेहरे है मगर मिर अकेली बात के
दिन सुनहेले है तुम्हारे स्वप्न तक उड़ाते हुए
पंख है नोंचे हुए मेरी अंधेरी रात के
सिर्फ़ मेरी बात में शकुंतलों की गंध है
तुम रहे खामोश, मैं हर बात दोहराता हुआ

छेड़कर एकांत मेरा शक्ल कैसी ले रही है
लाल -पीली सब्ज़ यादों से तराशी कतरने
ला रही कैसी घुटन का ज्वर ये पुरवाइयाँ
तेज़ खट्टापन लिए हैं दोफर की फिसलनें
भीगता हूँ गर्म तेजाबी लहर में दृष्टि तक
वक्त गलता है तपी बौछार छहराता हुआ

शोर कैसा है, न जिसको नाम मैं दे पा रहा
है अजब आकाश, ऋतुए हो गई है अनमनी
झनझनाती है ज़ेह्न मेरा लपकती बिजलियाँ
एक आँचल है मगर, बाँधे हुए संजीविनी
थरथराती भूमि है पावो-तले, पर शीश पर
टूटता आकाश है घनघोर घहराता हुआ

चाँदनी तुमने सुला दी विस्मरण की गोद में
बात हम कैसे रूपहली यादगारों की करें
एक दहशत खोजती रहती मुझे आठो प्रहर
किस लहकते रंग से गमगीन रांगोली भरे
तुम रहे हर एक सिहरन को विदा करते हुए
मैं दबे तूफान अपने पास ठहराता हुआ

मैं न पढ़ पाया कभी सायं नियम की संहिता
मैं जिया कमज़ोरियों से आसुओं से, प्यार से
साथ मेरे चल रहा है काल का बहरा बधिक
चीरता है जो मुझे हर क्षण अदेखी धार से
देवता बनकर रहे तुम वेदना से बेख़बर
मैं लिए हूँ घाव पर हर घाव घहराता हुआ