भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारा कौन सा घर है / सुधा चौरसिया

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:47, 11 जून 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधा चौरसिया |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या वह घर तुम्हारा है?
जहाँ से तुम खदेड़ दी जाती है
मनहूस साये की तरह
या कि जला दी जाती हो
केरोसिन, गैस ओर स्टोव में

इस जमीं पर
तुम्हारा अपना क्या है?
तुम एक इस्तेमाली चीज हो
जो बेकार हो जाती है, उबा देती है
टूट-फूट जाती है
फिर भी, आश्चर्य है
जोड़ लेती हो रिश्ता ईंट-गारों से
कंक्रीट और प्लास्टरों से
बनकर पर्याय चूल्हे का
सेंकती रहती हो
उत्पीड़न के दर्दों को तमाम उम्र

तुम देखती क्यों नहीं
खिडकियों से झाँक कर
संसार का अणु-अणु
अपने वजूद
अपनी अस्मिता के लिए
लगातार दौड़े जा रहा है
सूर्य, पृथ्वी, सागर, सरिता
किसी को भी तो चैन नहीं
फिर तुम क्यों ठहर गयी हो
पलास्तरों का पर्याय बनकर

छीन लो, अपने पैरों के लिए एक ठोस जमीन
और सिर के लिए टुकड़ा भर आकाश
फिर दौड़ो जमीन पर गड्ढों को भूलाकर
फैला दो अपने नुचे पंखों को
आकाश की नीलिमा में खाइयाँ और खरोच
खुद-ब-खुद भरते चले जायेंगे
नहीं तो-
तुम भी जमा दी जाओगी
कंक्रीट की तरह
घर की चमकीली नक्काशियों में...