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तुम्हारे होने पर / ज्ञान प्रकाश चौबे

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एक टुकड़ी धूप
जो मेरे छत पर
इस कोने से उस कोने तक
अलसाई-सी पसरी है

और वो हवा का झोंका
जो अचानक
दरवाज़े से आके चुपके से
खिड़की से निकल जाता है

और कमरे में फैली
तुम्हारी देह की गंध
जो शायद तुम छोड़ गई थी

और कुछ सपने भी
जो लिपटे-चिपटे पड़े हैं
मेरे चारपाई के पाँवों से
दुबके-छुपके हैं
मेरे तकिए के नीचे

और भी बहुत कुछ
वैसा ही है
जैसा वर्षों पहले था तुम्हारे होने पर