भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तूलिका की लेके आड़ / अनुराधा पाण्डेय

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:35, 7 मार्च 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनुराधा पाण्डेय |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तूलिका की लेके आड़, गले पड़े बार-बार, उसकी तो तय मानो, नियत में खोट है।
सर्जना की बात करे, सोचे किन्तु नैन लड़े, लौट-लौट करता जो, रूप को ही वोट है।
ऐसे जन चार दिन, दाना डाले गिन-गिन, फँसी नहीं चिड़ियाँ तो, उठती कचोट है।
ऐसे कामी ठौर-ठौर, रस ढूँढें बौर-बौर, कितनी भी मार खाएँ, लाज है न चोट है।