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दया प्रेम प्राय्यौ तिन्है, तन की तनि न संभार / दयाबाई

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सहजो की तरह दया ने भी उस प्रेम का वणन किया है जिसकी चोट लग जाने पर मनुष्य सांसारिक पीड़ाओं से मुक्त होकर निश्चिन्त हो जाता है, जिसके फल-स्वरूप उसे अपने तन मन की ही खबर नहीं रह जाती-

दया प्रेम प्राय्यौ तिन्है, तन की तनि न संभार।
हरि रस में माते फिरें, गृह बन कौन बिचार॥
हरि रस माते जे रहें तिनको मतो अगाध।
त्रिभुवन की सम्पति 'दया' , तृन सम जानत साध॥
कहू धरत पग परत कहुँ, डिगमिगात सब देह।
 'दया' मगन हरि रूप में, दिन-दिन अधिक सनेह।
हंसि गावत रोवत उठत, गिरि-गिरि परत अधीर।
पै हरि रस वसको 'दया' , सहै कठिन तन पीर॥
बिरह बिथा सूं हूँ बिकल, दरसन कारन पीव।
 'दया' दया की लहर कर, क्यों तलफाबो जीव॥
पथ प्रेम को अटपटो, कोइ न जानत बीर।
कै मन जानत आपनो, कै लागी जेहि पीर॥
सोवत जागत एक पल, नाहिन बिसरों तोहिं।
करुना सागर दया निधि, हरि लीजै सुधि मोहिं॥
प्रेम पुंज प्रगटै जहाँ, तहाँ प्रगट हरि होय।
 'दया' दया करि देत हैं, श्री हरि दर्सन सोय॥