भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दरियाँ और चूल्हे की गर्मी / संजीव बख़्शी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:14, 12 जून 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= संजीव बख़्शी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> यू...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यूँ तो अब दरियों पर बैठना कम हो गया है
बैठा नहीं जाता पैर मोड़कर
दरियों पर

जब भी बैठें दरियों पर
जान लें कि बुनने वालों के परिवार इससे पलते हैं
इनके चूल्हे की गर्मी इन दरियों से आती है

जाइए और कहिए अपने चिकित्सक से
घुटना मोड़कर बैठना उतना ही ज़रूरी है
जितना खाना खाने के पहले
डायबिटिस की गोली खाना

जाइए जल्दी करिए
यह डायबिटीस की गोली भी कमबख़्त
असर छोड़ देती है कभी भी ।