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दश्त में क़ैस नहीं कोह पे फ़रहाद नहीं / साग़र निज़ामी

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दश्त में क़ैस नहीं कोह पे फ़रहाद नहीं
है वही इश्क़ की दुनिया मगर आबाद नहीं

ढूँडने को तुझे ओ मेरे न मिलने वाले
वो चला है जिसे अपना भी पता याद नहीं

हुस्न से चूक हुई इस की है तारीख़ गवाह
इश्क़ से भूल हुई है ये मुझे याद नहीं

रूह-ए-बुलबुल ने ख़िज़ाँ बन के उजाड़ा गुलशन
फूल कहते रहे हम फूल हैं सय्याद नहीं

बर्बत-ए-माह पे मिज़राब-ए-फ़ुग़ाँ रख दी थी
मैं ने इक नग़्मा सुनाया था तुम्हें याद नहीं

लाओ इक सज्दा करूँ आलम-ए-मदहोशी में
लोग कहते हैं कि साग़र को ख़ुदा याद नहीं