भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिल कहे रुक जा रे रुक जा, यहीं पे कहीं / साहिर लुधियानवी

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:44, 24 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=साहिर लुधियानवी |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poem> ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिल कहे रुक जा रे रुक जा, यहीं पे कहीं
जो बात
जो बात इस जगह, है कहीं पे नहीं

पर्बत ऊपर खिड़की खूले, झाँके सुन्दर भोर,
चले पवन सुहानी
नदियों के ये राग रसीले, झरनों का ये शोर
बहे झर झर पानी
मद भरा, मद भरा समाँ, बन धुला-धुला
हर कली सुख पली यहाँ, रस घुला-घुला
तो दिल कहे रुक जा हे रुक जा...

ऊँच-ऊँचे पेड़ घनेरे, छनती जिनसे धूप
खड़ी बाँह पसारे
नीली नीली झील में झलके नील गगन का रूप
बहे रंग के धारे
डाली-डाली चिड़ियों कि सदा, सुर मिला-मिला
चम्पाई चम्पाई फ़िजा, दिन खिला-खिला
तो दिल कहे रुक जा रे रुक...

परियों के ये जमघट, जिनके फूलों जैसे गाल
सब शोख हथेली
इनमें है वो अल्हड़ जिसकी हिरणी जैसी चाल
बडी छैल-छबीली
मनचली-मनचली अदा, सब जवाँ जवाँ
हर घड़ी चढ़ रहा नशा, सुध रही कहाँ
तो दिल कहे रुक जा रे रुक जा...