भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुख मेरे आँगन की बेरी / वर्षा सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:59, 23 सितम्बर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुख
मेरे आँगन की बेरी ।

हँसी गुमी
धूप कहाँ
पात हिले
यहाँ वहाँ
आँचल में बंद गई छँहेरी ।

विरह गंध
फूल बसी
आँसू-सी
ख़ूब झरी
मैं भी तो प्रियतम की चेरी ।

साँसों के
दिवस चार
काँटों के
आर-पार
रामा! अब काहे की देरी ।