भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दूर तक नज़र रखना आरियाँ छुपी होंगी / सुदेश कुमार मेहर

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:07, 23 अगस्त 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुदेश कुमार मेहर |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर तक नज़र रखना आरियाँ छुपी होंगी
पेड़ कट गए सारे झाड़ियाँ छुपी होंगी

कैरियाँ छुपी होंगी, इमलियाँ छुपी होंगी
रेत के घरौंदों में सीपियाँ छुपी होंगी

छांट कर वो लमहे यूँ ही नहीं निकाले हैं,
इन उदासियों में भी मर्जियां छुपी होंगी

खोल तो ज़रा पन्ना फिर किसी दिसंबर का,
चाय की कहीं पर कुछ चुस्कियाँ छुपी होंगी

कमसिनी उठाकर लाऊं ज़रा लड़कपन की,
प्यार की मुहब्बत की तितलियाँ छुपी होंगी

पड़ गई हैं यादों में सिलवटें कहीं शायद,
ढूंढ ताक पर थोड़ी हिचकियाँ छुपी होंगी

बारिशों में कोई लम्हा भटक रहा होगा
झाँकना के गलियों में खिड़कियाँ छुपी होंगी