भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दूर है मंजिल राहें मुश्किल आलम है तनहाई का / शकील बँदायूनी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:01, 20 अप्रैल 2016 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
दूर है मंजिल राहें मुश्किल आलम है तनहाई का
आज मुझे एहसास हुआ है अपनी शिकस्तापाई का

देख के मुझ को दुनिया वाले कहने लगे हैं दीवाना
आज वहाँ है इश्क़ जहाँ कुछ ख़ौफ़ नहीं रुसवाई का

छोड़ दें रस्म-ए-ख़ुदनिगरी को तोड़ दें अपना ईमाँ
ख़त्म किये देता है ज़ालिम रूप तेरी अंगड़ाई का

मैं ने ज़िया हुस्न को बख़्शी उस का तो कोई ज़िक्र नहीं
लेकिन घर घर में चर्चा है आज तेरी रानाई का

अहल-ए-हवस अब घबराते हैं डूब के बेहर-ए-ग़म में "शकील"
पहले न था बेचारों को अंदाज़ा गहराई का