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दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले / हरिवंशराय बच्चन

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दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।


लहराया है तो दिल तो ललका

जा मधुबन में, मैदानों में,

बहुत बड़े वरदान छिपे हैं

तान, तरानों, मुसकानों में;

घबराया है जी तो मुड़ जा
सूने मरु, नीरव घटी में,

दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।


किसके सिर का बोझा कम है

जो औरों का बोझ बँटाए,

होंठों की सतही शब्‍दों से

दो तिनके भी कब हट पाए;

लाख जीभ में एक हृदय की
गहराई को छू पाती है;

कटती है हर एक मुसीबत-एक तरह बस-झेले झेले।

दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।


छुटकारा तुमने पाया है,

पूछूँ तो क्‍या क़ीमत देकर,

क़र्ज़ चुका आए तुम अपना,

लेकिन मुझको ज्ञात कि लेकर

दया किसी की, कृपा किसी की,
भीख किसी की, दान किसी का;

तुमसे सौ दर्जन अच्‍छे जो अपने बंधन से खेले।

दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।


ज़ंजीरों की झनकारों से

हैं वीणा के तार लजाते,

जीवन के गंभीर स्‍वरों को

केवल भारी हैं सुन पाने,

गान उन्‍हीं का मान जिन्‍हें है
मानव के दुख-दर्द-दहन का,

गीत वहीं बाँटेगा सबको, जो दुनिया की पीर सकेले।

दे मन का उपहार सभी को, ले चल मन का भार अकेले।