भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देखना, अब बदलेंगी लोकगीतों की दास्तानें / सरोज सिंह
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:09, 23 जनवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
परिंदे और परदेसियों के
दूर वतन जाने पर
दुआओं की गठरी बाँध
घर की चौखट पर
बैठी वजूद का
मिटटी होना लाज़मी होता
आँखों के बहते आंसू
उस मिटटी को सींचते रहते
जिनमे... गाहे-बगाहे
उम्मीदों के सब्ज़े उग आते
लोकगीतों की दास्ताने
उनसे ही आबाद थी
मगर अब...हमवतन ही
दुआओं की छतरी लिए
सुबह के निकले परिंदे औ बाशिंदे
वाजिब वक़्त...
जब घर को लौट नहीं आते
बजाये आने के उनके
बजती है फोन की घंटी
तब...चौखट पर
अपसकुन बुहारती
बेसब्र आँखे पथरा जाती हैं
अब उन आँखों से
अश्क तर नहीं होते
उन पथराई वजूदों पर
कोई सब्ज़ा भी नहीं उगता
बस इक आह: होती है
के, कोई तो आये
और उन्हें मिटटी कर दे
देखना...
अब बदलेंगी लोकगीतों की दास्तानें