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देखा सिया को क्या कहीं / पंकज परिमल

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हे खग ! सुनो
हे मृग ! सुनो,
ओ डोलते मधुकर ! सुनो
देखा सिया को क्या कहीं
आते हुए, जाते हुए

वो ही सिया जो डाल चुग्गा
पोसती खग-वृन्द को
वो ही सिया, मृग-शावकों को
गोद दुलराती रही
जिसके लिए था ज़िन्दगी में
तुम सभी का अर्थ कुछ
वनवास के दुख साथ पाकर
रोज़ बिसराती रही

ओ कूजते अलिवृन्द
क्या तुमने कभी देखा उसे
निज मुग्धता में
गीत फिर कोई मधुर गाते हुए

इस सृष्टि में सब स्वार्थ है
कोई किसी का है नहीं
सान्निध्य पाकर, प्यार पाकर
तुम सिया के कब हुए
एकाकिनी, हतभागिनी
वह सिद्ध होकर ही रही
उसके लिए संसार में
बस, राम के ही दृग चुए

सुरलोक वासी देवगण!
उसकी न सुध आई तुम्हें
जो याद करती थी तुम्हें
पीते हुए, खाते हुए

जिसके लिए निज धर्म था
सबसे अधिक वरणीय भी,
डिगता न भावाभाव में
चित में जगाता दीनता
जो द्वार आए अतिथि को
ख़ाली नहीं थी भेजती
क्षण-मात्र को जिसके कभी
चित में न व्यापी हीनता

यह द्वंद्व किसके चित्त को
मथता नहीं इस लोक में
देखा न उसको पर कभी
क्षणमात्र घबराते हुए