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दोहा - 2 / रत्नावली

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भूषन रतन अनेक नग, पै न सील सम कोइ।
सील जासु नैनन बसत, सो जग भूषण होइ॥

रतन करहु उपकार पर, चहहु न प्रति उपकार।
लहहिं न बदलो साधुजन, बदलो लघु ब्यौहार॥

रतन बाँझ रहिबो भलौ, भले न सौउ कपूत।
बाँझ रहे तिय एक दुष, पाइ कपूत अकूत॥

कुल के एक सपूत सों, सकल सपूती नारि।
रतन एक ही चँद जिमि, करत जगत उजियारि॥

तीरथ न्हान उपास ब्रत, सुर सेवा जपदान।
स्वामि विमुष रतनावली, निसफल सकल प्रमान॥