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दोहा - 3 / रत्नावली

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ऊपर सों हरि लेत मन, गांठि कपट उर माहिं।
बेर सरिस रतनावली, बहु नर नाहि लषाहिं॥

पिय साँचो सिंगार तिय सब झूँठे सिंगार।
सब सिंगार रतनावाली, इक पिय बिनु निस्सार॥

असन बसन भूषन भवन, पिय बिन कछु न सुहाय।
भार रूप जीवन भयो, छिन छिन जिय अकुलाय॥

रतन जनक धन ऋन उऋन, बहु जग जन गन होइ।
पै जननी ऋन सो उऋन, होइ बिरल जन कोइ॥

सोइ सनेही जो रतन, करहिं विपति में नेह।
सुष संपति लषि जन बहुरि, वनें नेह के गेह॥