भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा - 5 / रत्नावली

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:02, 3 दिसम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रत्नावली |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatDoha}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रतनावलि भवसिंधु मधी, तिय जीवन की नाव।
पिय केवट बिनु कौन जग, पेइ किनारे लाव॥

को जाने रतनावली, पिय बियोग दुष बात।
पिय बिछुरन दुष जानतीं, सीय दमैंती मात॥

तन धन जन बल रूप को, गरब करौ जनि कोय।
को जानै बिधि गति रतन, छन में कछु कछु होय॥

रतनावलि काँटो लग्यो, बैदनु दयो निकारि।
बचन लग्यो निकस्यौ न कहुँ, उन डारो हियकारि॥

छनहुँ न करि रतनावली, कुलटा तिय को संग।
तनक सुधाकर संग सों, पलटति रजनी रंग॥