भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा / भाग 10 / रत्नावली देवी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:14, 29 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रत्नावली देवी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऊपर सों हरि लेत मन, गांठि कपट उर माहिं।
बेर सरिस रतनावली, बहु नर नारि लषाहिं।।91।।

उर सनेह कोमल अमल, ऊपर लगे कठोर।
नरियर सम रतनावली, दीसहिं सज्जन थोर।।92।।

मन बानी अरु करम में, सत जन एक लषायँ।
रतन जोइ विपरीत गति, दुरजन सोइ कहायँ।।93।।

जे उपकारी को रतन, करत मूढ़ अपकार।
ते जग अपजस लहत पुनि, मरें नरक अधिकार।।94।।

रतनावलि नइ चलि सदा, नइ सुभाइ बतराइ।
नारि प्रसंसा नइ रहे, नित नूतन अधिकाइ।।95।।

रतनावलि करतब समुझि, सेइ पतिहि निषकाम।
तप तीरथ ब्रत फल सकल, लहैं बैठि घर वाम।।96।।

पुन्य धरम हित नित पतिहि, रहि बढ़ाय उतसाह।
ताहि पुन्य निज गुनि रतन, पुन्य करत जोनाह।।97।।

सती धरम धरि जांचि नित, हरि सों पति कुसलात।
जनम जनम तुव तिय रतन, अचल रहैं अहिवात।।97।।

जो तिय मन बच काय सों, पिय सेवति हुलसाति।
तेहि चरननु की धूर धरि, रतनावली सिहाति।।99।।

जासु चरित वर अनुसरै, सतबंती हरषाइ।
ता इक नारी रतन पै, रतनावलि बलि जाइ।।100।।