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दोहा / भाग 1 / रत्नावली देवी

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होइ सहज ही हौं कही, लह्यो बोध हिरदेस।
हों रतनावली जँचि गई, पिय हिय काँच विसेस।।1।।

रतन दैव बस अमृत विष, विष अमिरत बनि जात।
सूधी हू उलटी परै, उलटी सूधी बात।।2।।

रतनावलि औरै कछू, चहिय होइ कछु और।
पाँच पैंड़ आगे चलै, होनहार सक ठौर।।3।।

भल चाहत रतनावली, बिधि बस अनभल होइ।
हों पिय प्रेम बढ़यो चह्यो, दयो मूल तें षोइ।।4।।

जानि परै कहुँ रज्जु अहि, कहुं अहि रज्जु लषात।
रज्जु-रज्जु अहि-अहि कबहुँ, रतन समय की बात।।5।।

हों न नाथ अपराधिनी, तौउ छमा करि देउ।
चरननि दासी जान निज, बेगि मोरि सुधि लेउ।।6।।

जदपि गए घर सों निकरि, मो मन निकरे नाहिं।
मन सों निकरौ ता दिनहिं, जा दिन प्रान नसाहिं।।7।।

छमा करहु अपराध सब, अपराधिन के आय।
बुरी भली हौं आप की, तजौं न लेहु निभाय।।8।।

कहाँ हमारे भाग अस, जो पिय दरसन देयँ।
वाहि पाछिली दीठि सों, एक बार लषि लेयँ।।9।।

कबहुँ कि ऊगै भाग रवि, कबहुँ कि होइ बिहान।
कबहुँ कि बिकसै उर कमल, रतनावलि सकुचान।।10।।