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दोहा / भाग 3 / हरिप्रसाद द्विवेदी

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मौलि जटा धनु बान कर, मुख प्रसेदु अंग श्रान्त।
बसौ बिजय राघव हिये, किये रूप रण-क्राँत।।21।।

लै बल विक्रम बीन कवि, किन छेड़त वह तान।
उठें डोलि जेहिं सुनत ही, धरा मेरु ससि भान।।22।।

फिर दोसी किन जाय दुरि, देखत ही कवि चन्द।
जासु प्रभा लखि परि गयो, कवि होमर हूँ मन्द।।23।।

सिवा सुजस सरसिज सुरस, मधुकर मत्त अनन्य।
रस-भूषण-भूषण सुकवि, भूषण भूषण धन्य।।24।।

पराधीन सबु देखियतु, बल-बीरज तें हीन।
या कानन में केहरी, इक तूँही स्वाधीन।।25।।

जहँ नृत्यति नित चंडिका, ताँडव-नृत्य प्रचण्ड।
कुसुम तीर तहँ काम के, होत आप सत-खण्ड।।26।।

खल-खण्डन मण्डन-सुजन, अरि बिहण्ड बरिबण्ड।
सोहत सिन्धुर-सुण्ड सै, सुभट चण्ड भुजदण्ड।।27।।

सुभट-नयन अंगारु पै, अरचजु एकु लखातु।
ज्याैं ज्यौं परतु उमाह-जलु, त्यौं-त्यौं धँधकत जातु।।28।।

प्रलय कारिनी तुव छाता, लत लपाति तरवार।
खात-खत खल-सीसु जो, लई न अजहुँ उकार।।29।।

देखत ही वह कुटिल धनु, कुटिल सरल ह्वै जात।
त्यों अरि अथिर थिरात, ज्यौं विषम बान लहरात।।30।।