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दोहे / सपना मांगलिक

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1
ढोंग अनोखे रच रहे, जग के ठेकेदार
घूमें जोगी भेष में, अंटी में कलदार
2
दिल में कारगुजारियां, अधरों पर है मौन
ऐसे बगुला भगत को, पहचानेगा कौन?
3
सदकर्मों का तोड़ घट, जो जन पाप कमाय
लाभ उसको मिले नहीं, गाँठ का भी लुटाय
4
पति-पत्नी जो चलत रही, चलन दो नौक - झोंक
जो जन बोले बीच में, देत आग में छोंक
5
चिरनिद्रा में बैरभाव, बंधुत्व जाय जाग
उसी रोज इस देश के, खुल जायेंगे भाग
6
फैली अशांति हर जगह, शान्ति का अभाव
नायक सुभाष से नहीं, छोडें जो प्रभाव
7
नितदिन बढ़ता जा रहा, जातिवाद का कोढ़
कितने हिस्सों में बंटें, मची हरतरफ होड़
8
नफरत डारो आंच में, दिल लो आप मिलाय
मन प्रेम का भाव रखो, अलगाव दो मिटाय
9
लालफीता खत्म करो, ईमान हो बहाल
काम पूरे शीघ्र हों, देश बने खुशहाल
10
नित दिन बढती जा रही, सबंधों में खटास
त्यौहार के लड्डू भी, घोल सकें न मिठास
11
उर तेरे भाव अकूत, उमड़े मन सैलाब
हाथ कलम जो थाम लें, आ जाय इन्कलाब
-0-
सपना के पुराने दोहे
1
उर में गहरा जख्म हो, दवा न दे आराम
प्रेम पगे दो बोल ही, करें दवा का काम
2
खून आज का हो रहा, लोहे से भी गर्म
नहीं कद्र माँ बाप की, खोई नैना शर्म
3
मन्दिर मस्जिद चर्च में, ढूंढा चारों धाम
जो मन खोजा आपना, मिले वहीँ पर राम
4
चंदा तकता चांदनी, धरा तके आकाश
सबके दिल में खिल रहे, भीगे प्रेम पलाश
 5
खोल जब भी मुख मानुष, शब्द प्रेम के बोल
ढाई आखर प्रेम के, शब्द बड़े अनमोल
6
चूसत खून गरीब का, नेता भरते कोष
गंगाजल से कब भला, धुलते उनके दोष
7
कर न पाया जीवन जो, सही गलत में भेद
मरता मौत चूहे सी, करे न कोई खेद
8
क्या तू लाया संग में, संग क्या ले जाय
धन दौलत कपडे सभी, धरा यहीं रह जाय
9
धरते धरते आस को, बीती जीवन शाम
क्या पता लग जाए कब, इन पर पूर्ण विराम
10
बातों से लौटें नहीं, काले धन के कोष
जनता भूखी मर रही, फ़ैल रहा आक्रोश
11
पुष्प आजकल वृक्ष पर, वरपाते हैं जुल्म
दोस्तों में छिपे दुश्मन, हमें नहीं बस इल्म
12
मान मर्यादा ताक पर, नेकी दई भुलाय
ओढ़े दो गज का कफ़न, और साथ का जाय
13
भाग्य का मिल जाएगा, तुमको देर सवेर
हडबडी फिर काहे की, चढ़ते क्यों मुंडेर
14
दुनिया भर में चल रहा, यह गोरख व्यापार
असली कोने में पड़ा, नकली का बाजार
15
नेता फिर दिखला रहे, जनता को अंगूर
समझे भैया चाल को, करें नहीं मंजूर
16
गोबिंद और ज्ञान की, कद्र न हो जिस ठौर
भूत पिशाच बसें वहां, बसे न कोई और
 17
लक्ष्य रखे जो आदमी, आप कर्म से ऊंच
गिर पड़े वो धडाम से, शर्म से जाय डूब
18
मुंह चुरावे कर्म से, और कहे लाचार
घुन लगे उस शरीर में, हो सके न उपचार
जो बली के चरणों में, रोज झुकावे शीश
आग लगाता वो फिरे, मिले उसे आशीष
 
                                            20
करते रहते रात दिन, जो व्यर्थ के काम
स्वंय को बर्बाद करें, देश करें बदनाम
21
धन दौलत मांगे नहीं, प्रेम वचन का दास
जो बतियावे प्रेम से, वो ही मन का ख़ास
22
व्यस्त भोग विलास में, करते ध्यान न योग
निरोगी कोई न मिले, बसें उस ठौर रोग
23
जोगी जा संसार में, इत उत लड़ते नैन
तप ध्यान सब भंग करें, जी कर दें बैचैन
24
सुमिरन हरि का मैं करूँ, भूलूँ दिन क्या रैन
हरि का दर्शन जो मिले, आये तब ही चैन
25
रे मन गठरी बाँध तू, कर न किसी से मोह
 मन का मायाजाल ये, बेहतर है बिछोह
 26
कर न मेहनत जी तोड़, जब हो पुत्र कनाश
नाम गिरावे गोत्र का, धन का करे विनाश
27
लाठी लेकर फिर रहे, गांधी जी के भक्त
सज्जन को हड़का देत, दुर्जन को दें तख्त
28
हुस्न की गर चिलमन से, झलक अगर दिख जाय
 सठियाती इस उम्र में, चैन हमें मिल जाय
29
दास प्रभु से यह कहे, सुन लो अर्ज हमार
राम नाम जप दिन कटें, बेचो अहम् अटार
30
मन चाह मिल जाएगा, मन में ले जो ठान
जीत दौड़ी आएगी, लक्ष्य बने आसान
31
महल चाकरी के बुरे, छिजें न तख्तो - ताज
गज भर की कुटिया भली, सुख अपने ही काज
32
अंटी में एक इकन्नी, तिस पर खर्चे दून
ठगी से परहेज नहीं, सिर पर सवार खून
33
इधर का जो करे उधर, खेले अजीब खेल
फल कर्म का खुद भुगते, जिये दर्द को झेल
34

सुख में सुमिरन कर लिए, जिसने हरि के पाँव
उसी सच्चे भक्त को, मिलता हरि का गाँव
35
मुख दूजों का जो तके, आदमी कर्महीन
लक्ष्मी हो जाती कुपित, मिलती न जर जमीन